मध्यस्थता से होगा व्यावसायिक विवाद का निराकरणः सीजे
बिलासपुर(निप्र)। व्यापारियों के बीच लेने-देने के विवादों का मुकदमे की बजाय मध्यस्थता से निराकरण होगा। इसी शुरुआत बिलासपुर से होगी। सफल होने पर इसे जिला स्तर पर भी लागू किया जाएगा। यह बात छत्तीसगढ़ राज्य विधिक सेवा प्राधिकरण की ओर से आयोजित कार्यशाला में मुख्य अतिथि चीफ जस्टिस नवीन सिन्हा ने कही। कार्यक्रम में जस्टिस सिन्हा ने व्यापारियों को मध्
बिलासपुर(निप्र)। व्यापारियों के बीच लेने-देने के विवादों का मुकदमे की बजाय मध्यस्थता से निराकरण होगा। इसी शुरुआत बिलासपुर से होगी। सफल होने पर इसे जिला स्तर पर भी लागू किया जाएगा। यह बात छत्तीसगढ़ राज्य विधिक सेवा प्राधिकरण की ओर से आयोजित कार्यशाला में मुख्य अतिथि चीफ जस्टिस नवीन सिन्हा ने कही।
कार्यक्रम में जस्टिस सिन्हा ने व्यापारियों को मध्यस्थता के लाभ की जानकारी दी। उन्होंने कहा कि छत्तीसगढ़ सरकार भी व्यवसायियों को सुविधा देना चाहती है। व्यापारियों के मध्य विवादों का आर्बिटेशन या कंशिड्रेशन के साथ तीसरी नई चीज मध्यस्थता है। इसके लिए मध्यस्थता करने वालों को 40-40 घंटे का प्रशिक्षण दिया गया है। मध्यस्थता कराने वाले प्रशिक्षित लोग दोनों पक्षों को बैठाकर समझौता कराते हैं। इसके लिए एक प्रशिक्षित जज भी साथ बैठता है। उन्होंने कहा कि इसके लिए व्यवसायी को राज्य विधिक सेवा प्राधिकरण के सदस्य सचिव को आवेदन देना होगा। सदस्य सचिव दूसरे पक्ष को उपस्थित होने नोटिस जारी करेंगे। इसके बाद दोनों के बीच समझौता कराया जाएगा। इसमें प्रकरण न्यायालय में जाने से पहले रखा जाता है। इससे व्यवसायी का मुकदमाबाजी में समय और धन बचता है। मध्यस्थता में किसी प्रकार का शुल्क नहीं लिया जाएगा। सीजे श्री सिन्हा ने कहा कि व्यवसायी समझौता के बाद स्वेच्छा से प्राधिकरण को डोनेशन दे सकते हैं। इसमें किसी प्रकार का दबाव नहीं होगा। इस राशि का अन्य जरूरतमंद को सहायता उपलब्ध कराने में खर्च की जाएगी। कार्यशाला का अध्यक्षता करते हुए राज्य विधिक सेवा प्राधिकरण के कार्यपालक अध्यक्ष जस्टिस प्रीतिंकर दिवाकर ने बताया कि यह योजना बिलासपुर से प्रारंभ की जा रही है। इसमें किसी की हार नहीं होती। ऐसे मामले में समझौता नहीं होने पर अदालत जाने का विकल्प खुला हुआ है। जस्टिस दिवाकर ने कहा कि बिलासपुर में सफल होने पर इसे जिला स्तर में ले जाया जाएगा। इसी प्रकार अदालत में चल रहे मामले को भी मध्यस्थता के माध्यम से लोक अदालत में रखा जा सकता है। कार्यशाला में चीफ जस्टिस नवीन सिन्हा, जस्टिस प्रीतिंकर दिवाकर, जस्टिस गौतम भादुड़ी, निदेशक राज्य न्यायिक एकेडेमी गौतम चौरगड़िया, आरजी अरविंद सिंह चंदेल, सदस्य सचिव रजनीश श्रीवास्तव, सचिव उच्च न्यायालय विधिक सेवा समिति शक्ती सिंह राजपूत, उप सचिव ओमप्रकाश जायसवाल उपस्थित थे। शुरुआत में छत्तीसगढ़ लघु एवं सहायक उद्योग संघ के अध्यक्ष हरीश केडिया, अनिल सलूजा, राजू केडिया, चरण सिंह, सुरेश गोयल ने अतिथियों का पुष्प गुच्छ से स्वागत किया। आभार प्रदर्शन संभागीय चेम्बर के महामंत्री बेनी गुप्ता ने किया। इस मौके पर विनोद अग्रवाल, कमल विधानी, किशोर पंजवानी, मध्यस्थता व्यापारी भोलाराम मित्तल, मोती सुल्तानिया, तवीन्दर पाल अरोरा, जितेन्द्र गांधी, सुनील मारदा, मोहन अग्रवाल, मुकेश अधीजा, राजकुमार केडिया, सरगुजा के चरण सिंह अग्रवाल, रायगढ़ के राजेंद्र अग्रवाल, मुंगेली के जेठमल कोरड़िया, अकलतरा से मो. इमरान, बिल्हा से गोवर्धन अग्रवाल, सुरेश केडिया, सहित संभागीय चेम्बर आफॅ कामर्स एवं उद्योग संघ के प्रमुख व्यवसायी उपस्थित थे।
व्यवसायियों ने किए सवाल
कार्यशाला के दौरान एक व्यवसायी ने पूछा कि लेने-देन का विवाद यूपी में चल रहा। क्या इस मामले की सुनवाई यहां हो सकती है। इस पर सीजे ने व्यवसायी को कहा कि आप इस संबंध में प्राधिकरण के सदस्य सचिव से चर्चा करें। इसी प्रकार एक व्यवसायी ने सरकार विभाग से चलने वाले विवाद की सुनवाई पर प्रश्न किया गया। इस पर चीफ जस्टिस ने कहा कि सरकारी विभाग से चलने वाले विवाद पर भी सुनवाई हो सकती है।
मध्यस्थता व्यापारी
मुझे, मध्यस्थता पर राष्ट्रीय ‘जिला स्तरीय’ संगोष्ठी का उद्घाटन करते हुए खुशी हो रही है, जिनका विषय, ‘संस्थागत स्तर पर मध्यस्थता को सशक्त करने में जिला न्यायपालिका की भूमिका’ है।
विवादों के समाधान की प्रक्रिया के रूप में मध्यस्थता भारत के लिए नई नहीं है। अंग्रेजों के आगमन से बहुत पहले, भारत में पंचायत प्रणाली ऐसा मंच हुआ करता था जहां गांव के सम्माननीय बुजुर्ग, समुदाय में होने वाले विवादों को हल करने में सहयोग देते थे। आज भी गांवों और हमारे जनजातीय समुदायों में इस तरह की परंपरागत मध्यस्थता प्रचलन में है।
अंग्रेजी हुकुमत से पहले भारत में मध्यस्थता व्यापारियों के बीच लोकप्रिय थी। ऐसे निष्पक्ष तथा सम्माननीय व्यापारियों से, जिन्हें महाजन कहा जाता था, व्यापारियों के संघों द्वारा अनौपचारिक पद्धतियों से विवादों को सुलझाने का अनुरोध किया जाता था और इनमें ऐसी तकनीकों का इस्तेमाल होता था जो आज भी प्रचलित हैं। यद्यपि इन प्रक्रियाओं को कानूनी प्राधिकार प्राप्त नहीं था फिर भी ये मध्यस्थता प्रक्रियाएं लगातार प्रयोग की जाती थी और भारतीय पक्षकारों द्वारा इन्हें प्राय: स्वीकार किया जाता था।
अंग्रेजों के शासन के साथ एंग्लो-सेक्शन विधिशास्त्र की प्रतिपक्षी प्रणाली का आगमन हुआ जो आज तक प्रचलित है। परंतु आजादी के बाद वैकल्पिक विवाद समाधान प्रक्रियाएं नए-नए रूप में सामने आती रहीं और 1987 में विधिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम के लागू होने से, हमने लोक अदालतों के रूप में अपनी पुरानी मध्यस्थता प्रक्रिया को फिर से शुरू होते देखा।
यह स्वीकार करना जरूरी है कि हमारे देश में मौजूद मजबूत, स्वतंत्र तथा निष्पक्ष न्यायिक प्रणाली होने के बावजूद यह एक खेदजनक सच्चाई है कि कानूनी विवाद लम्बे समय तक खिंचते हैं तथा खर्चीले होते हैं। कानूनों की जटिलता, अत्यधिक विलंब तथा संसाधनों के मुकदमेबाजी में निरर्थक उपयोग जैसे मुद्दों से जनता बहुत अधिक परेशान है। बहुत से सामाजिक विवाद भी कानूनी विवादों में तबदील हो गए हैं जिससे समस्या का समाधान होने के बजाय उसमें वृद्धि होती है इसलिए इस समय विवादों के समाधान की वैकल्पिक पद्धतियों को प्रोत्साहित करने तथा लोकप्रिय बनाने की जरूरत है। वैकल्पिक विवाद समाधान तंत्रों से न केवल शीघ्र न्याय मिलता है, बल्कि यह एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें अंतिम निष्कर्ष पर संबंधित पक्षकारों का नियंत्रण होता है। इससे निर्णयों का तुरंत कार्यान्वयन होता है तथा आगे अपीलों के रूप में निरंतर मुकदमेबाजी से भी बचाव होता है। खास बात यह है कि यदि मध्यस्थता से मामला सुलझता है तो पक्षकारों द्वारा जमा किए गए न्यायालय शुल्क का काफी बड़ा हिस्सा उन्हें वापस मिल जाता है। इसी कारण पूरी व्यापारिक दुनिया तथा खासकर सामान्य विधि के क्षेत्र में यह माना जाता है कि ठीक ढंग से की गईं मध्यस्थताएं ऐसे सबसे ज्यादा कारगर माध्यम हैं जिनसे दीवानी तथा व्यापारिक विवादों में फंसे हुए पक्षकार अपने-अपने मामलों को सुलझा सकते हैं। यह जगजाहिर है कि मध्यस्थता पारिवारिक तथा वैवाहिक मामलों के सौहार्दपूर्ण समाधान में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है। सरकारी विभागों और एजेंसियों के बीच विवाद भी संभवत: मुकदमों के बजाय मध्यस्थता से अच्छे ढंग से सुलझाए जा सकते हैं।
अमरीका के एक प्रख्यात मध्यस्थ जोसेफ ग्रायनबोम ने कहा था, ‘‘मध्यस्थता का एक औंस, माध्यस्थम के एक पौंड तथा मुकदमेबाजी के एक टन के बराबर है।’’
मैं, भारत के उच्चतम न्यायालय को इस बात के लिए बधाई देता हूं कि उन्होंने 2005 में मध्यस्थता तथा सुलह परियोजना समिति की स्थापना की तथा देश भर में वैकल्पिक विवाद समाधान पद्धतियों को प्रोत्साहित किया और बढ़ावा दिया।
हम भारत के आम आदमी के हितों की रक्षा तभी कर पाएंगे जब वैकल्पिक विवाद समाधान, भारतीय न्याय प्रणाली का एक अभिन्न अंग बन जाएगा।
विवाद में शामिल भागीदारों को उनकी कार्रवाई की प्रकृति, उनके गुणावगुण, सीमाओं और परिणामों से पूरी तरह अवगत कराया जाना चाहिए। विवाद में फंसे लोगों तक पहुंचने का सबसे अच्छा रास्ता है उनको मध्यस्थता के बारे में जानकारी देना, जनता को जागरूक करना तथा सभी को मध्यस्थता तथा सुलह की उपलब्धता तथा प्राप्यता के बारे में सूचना प्रदान करना। मध्यस्थता को केवल शहरों में ही लोकप्रिय बनाना काफी नहीं है। जागरूकता निम्नतम् स्तर तक पहुंचनी चाहिए। लोगों को पहले मुकदमेबाजी के बजाय मध्यस्थता का सहारा लेने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।
इस विषय में प्रशासनिक और न्यायिक तंत्र को सहनशीलता और दृढ़ता दिखाने की जरूरत है। प्रत्येक समाज में बदलाव के प्रति अनिच्छा का भाव मौजूद होता है। लोगों को विकल्प के बारे में पता होता है परंतु वे मुकदमेबाजी के प्रचलित उपाय को अधिक सुगम मानते हैं। न्याय प्राप्त करने वालों के लिए मुकदमा पहला विकल्प रहा है और उनके लिए यह स्वाभाविक है कि वे अपने विवादों के समाधान के लिए न्यायालय का दरवाजा खटखटाएं।
परंतु यही वह समय है जब जिला न्यायालय तथा न्यायपालिका को बड़ी भूमिका निभानी है। उन्हें वादकारियों को यह बात समझानी चाहिए कि मध्यस्थता में मानवीयता के साथ लाभ प्राप्त होते हैं। कोई भी हारता या जीतता नहीं है। इसमें कोई सीमा अथवा प्रतिबंध नहीं है। यही वह व्यवहार्य तथा लचीला रास्ता है जो कि सभी संबंधितों के फायदे में होता है।
वर्तमान भारत में सामाजिक रूप से जागरूक नए अधिवक्ताओं के लिए कानूनी शिक्षा में वैकल्पिक विवाद समाधान पद्धतियों को अनिवार्यत: शामिल किया जाना चाहिए।
एक ऐसे व्यक्ति के रूप में जिसने कानून पढ़ा है तथा कई दशकों से जनता की सेवा में रहा है, व्यक्तिगत तौर पर मेरा अनुभव है कि अधिकतर विवादों का समाधान संबंधित व्यक्तियों में संप्रेषण की कमी या फिर अहम् के कारण मुश्किल हो जाता है। मैंने सदैव यह पाया है कि कारगर संप्रेषण के साथ संबंधित मध्यस्थता व्यापारी व्यक्तियों की चिंताओं के प्रति संवेदनशीलता से अधिकतर विवादों का समाधान संभव हो जाता है। एकदम बुनियादी स्तर पर, केवल इस बात की जरूरत होती है कि एक अनौपचारिक तथा गोपनीय प्रक्रिया अपनाई जाए तथा ऐसे तीसरे पक्षकार से सहायता ली जाए जो दोनों के हितों का ध्यान रखते हुए मामले पर बातचीत करके उसका समाधन कर सके। यह विषय बंटवारा करने का नहीं बल्कि इस प्रक्रिया में शामिल सभी को विजयी होने का अहसास दिलाने का है।
मैं मध्यस्थता तथा सुलह परियोजना समिति को, वैकल्पिक विवाद समाधन को बढ़ावा देने के उनके प्रयासों में सफलता के लिए शुभकामनाएं देता हूं। मैं यहां उपस्थित सभी भागीदारों से इस काम में पूरे दिल से जुटने, हमारी प्राचीन परंपराओं से लाभ उठाने तथा आम आदमी के हित को ध्यान में रखने का आह्वान करता हूं।
मैं इस संगोष्ठी की सफलता की कामना करता हूं।
कॉपीराइट © 2012
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मध्यस्थता की अवधारणा
एक वैकल्पिक विवाद समाधान तंत्र जिसे एडीआर भी कहा जाता है, एक गैर-प्रतिकूल तरीके से पार्टियों के बीच विवादों को हल करने का एक तरीका है। यह एक प्रभावी तरीका है क्योंकि यह विवाद समाधान के लिए अदालत के पास जाने की प्रक्रिया से बचने में मदद करता है। कुछ वर्षों में, वाणिज्यिक प्रकृति के मामलों में वृद्धि के कारण वैकल्पिक विवाद समाधान तंत्र काफी लोकप्रिय हो गया है। ज्यादातर कंपनियां कोर्ट जाने से बचती हैं और एडीआर का इस्तेमाल कर विवाद को हल करना पसंद करती हैं। यह लंबी कानूनी लड़ाई से बचने और समय बचाने के लिए किया जाता है। विभिन्न प्रकार के वैकल्पिक विवाद समाधान तंत्र इस प्रकार हैं: -
भारत में मध्यस्थता की अवधारणा क्या है?
भारत में एक वैकल्पिक विवाद समाधान तंत्र के रूप में मध्यस्थता की अवधारणा मध्यस्थता और सुलह अधिनियम 1996 द्वारा शासित है। अधिनियम में निर्धारित तंत्र के अनुसार, या तो पक्ष या न्यायालय में मध्यस्थता न्यायाधिकरण नियुक्त करते हैं। आर्बिट्रल ट्रिब्यूनल द्वारा पारित आदेश या पुरस्कार दोनों पक्षों पर बाध्यकारी होगा और एक नागरिक डिक्री के समान न्यायालय में लागू करने योग्य होगा। भारत में प्रचलित मध्यस्थता कानून 1940 का मध्यस्थता और सुलह अधिनियम था जिसे बाद में निरस्त कर दिया गया था और 1996 का मध्यस्थता और सुलह अधिनियम पारित किया गया था। यह अधिनियम संयुक्त राष्ट्र के अंतर्राष्ट्रीय व्यापार कानून (UNCITRAL) अंतर्राष्ट्रीय वाणिज्यिक मध्यस्थता परिषद के मॉडल कानून पर आधारित था।
भारत में विभिन्न प्रकार के मध्यस्थता क्या हैं?
विभिन्न प्रकार के मध्यस्थता की विशेषता या तो के आधार पर की जा सकती है-
प्रक्रियात्मक और नियम
क्षेत्राधिकार के आधार पर
क्षेत्राधिकार के आधार पर, मध्यस्थता के प्रकार इस प्रकार हैं *
घरेलू मध्यस्थता
वाक्यांश मध्यस्थता को मध्यस्थता और सुलह अधिनियम, 1996 में परिभाषित नहीं किया गया है। हालांकि, यह अधिनियम में संबंधित अनुभाग को पढ़ने से आशयित किया जा सकता है कि घरेलू मध्यस्थता वहां होती है जहां शामिल पक्ष भारतीय हैं और विवाद भारत में उत्पन्न हुआ है और है भारत के लिए लागू मूल कानून के अनुसार हल किया जाना चाहिए।
अंतर्राष्ट्रीय मध्यस्थता
यदि मध्यस्थता की कार्यवाही में पक्षकारों या विवाद के विषय के संबंध में कोई विदेशी तत्व शामिल है, भले ही भारत में या भारत के बाहर मध्यस्थता हो, इसे अंतर्राष्ट्रीय मध्यस्थता कहा जाता है। या दूसरे शब्दों में, यदि विवाद के लिए पक्षकारों में से एक विवाद भारत के बाहर हावी है, तो इस तरह के विवाद के साथ कार्यवाही अंतर्राष्ट्रीय मध्यस्थता बन जाती है।
अंतर्राष्ट्रीय वाणिज्यिक मध्यस्थता
इंटरनेशनल कमर्शियल आर्बिट्रेशन, उन लेनदेन के कारण उत्पन्न होने वाली पार्टियों के बीच कोई अंतर्राष्ट्रीय मध्यस्थता है, जो भारत के कानूनों के अनुसार वाणिज्यिक मानी जाती है और जहाँ एक पक्ष है -
"भारत का, या भारत के अलावा किसी मध्यस्थता व्यापारी भी देश का निवासी, या अभ्यस्त
एक निकाय कॉर्पोरेट जिसे किसी भी विदेशी देश में शामिल किया जाना है, या
एक संघ या व्यक्तियों का एक निकाय जिसका मूल प्रबंधन और नियंत्रण किसी ऐसे देश में है जो भारत या नहीं है
भारत में दूसरे देश की सरकार। ”
एक मध्यस्थता समझौता क्या है?
एक मध्यस्थता समझौते को मध्यस्थता और सुलह अधिनियम 1996 के तहत परिभाषित किया गया है, जो किसी भी या सभी विवादों को प्रस्तुत करने वाले मध्यस्थता को प्रस्तुत करने वाले किसी भी समझौते के रूप में परिभाषित किया जाता है या पार्टियों के बीच मौजूद किसी भी संबंध के संबंध में पार्टियों के बीच पहले से ही उत्पन्न हो सकता है, यानी संविदात्मक या नहीं। हालांकि, अनिवार्य शर्त यह है कि समझौता लिखित रूप में होना चाहिए। कोई भी मौखिक मध्यस्थता समझौते कानून के अनुसार मान्यता प्राप्त नहीं हैं। इसके अतिरिक्त, मध्यस्थता के लिए निर्धारित एक समझौते को एक मध्यस्थता समझौते के रूप में नहीं माना जा सकता है।
मध्यस्थता में न्यायिक हस्तक्षेप
1996 का मध्यस्थता और सुलह अधिनियम UNCITRAL मॉडल कानून पर आधारित है, जिसके तहत UNCITRAL मॉडल कानून के अनुच्छेद 5 जो न्यायालयों द्वारा न्यायिक हस्तक्षेप को सीमित करने का प्रयास करता है। इसी तरह, मध्यस्थता और सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 5 के तहत न्यायिक हस्तक्षेप का दायरा मध्यस्थता कार्यवाही में सीमित कर दिया गया है। इसके अतिरिक्त, मध्यस्थता और सुलह अधिनियम की धारा 34 के तहत न्यायिक हस्तक्षेप का दायरा भी कम कर दिया गया है, जिसके आधार पर एक मध्यस्थता पुरस्कार को अलग रखा जा सकता है। 1996 के अधिनियम की धारा 34 में उन आधारों को भी शामिल किया गया है जिन पर न्यायिक हस्तक्षेप किया जा सकता है। इस तरह से मध्यस्थता और सुलह अधिनियम 1996 का उद्देश्य न्यायालय के न्यायिक हस्तक्षेप को सीमित करना है।
Lawtendo कैसे मदद कर सकता है?
Lawtendo ग्राहकों को उच्च न्यायालयों और उच्चतम न्यायालयों से सबसे अच्छे प्रकार के मध्यस्थता वकीलों को नियुक्त करने में मदद करता है। वकीलों, ग्राहकों और कंपनियों के लिए चारों ओर देख कर समय बर्बाद करने के बजाय, मध्यस्थ समझौते का मसौदा तैयार करने में मदद करने के लिए लॉटेंडो से संपर्क कर सकते हैं।
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